रात के अँधेरे में
डूबते हुए सूरज में छिप कर
अपनी पलकों के कुछ आंसूं
मैंने युहीं हंसी से दबा लिए
कुछ बातें थी अनकही
कुछ अधूरे ख्वाब थे
कुछ अनकहे शब्द थे
और मैं...
हमेशा से वहीँ खढी थी
उसी अँधेरे में
अपने आंसुओं को छिपाए
डरते हुए, सहमे हुए
नज़रें झुकी हुई
स्वर में हिचकिचाहट
एक डर सा था
अँधेरे का...शायद
जैसे जैसे सूरज ढलता गया
मेरा डर उभर कर सामने आने लगा
मेरी आवाज़ भर्राने लगी
और मेरे हाथ पाँव ठन्डे पड़ गए
कुछ शब्द और कुछ अश्क
रोक लिए..
अपने आँचल से जैसे समेट लिए
सन्नाटे में घुँघरू की आवाज़
को दबोच लिया
पैरों की सरसराहट को
धीरे से किसी ने चुरा लिया
और रह गयी एक चुभती
हुई ख़ामोशी
मैं उस ख़ामोशी से कुछ
शब्द चुराना चाहती थी
उस शान्ति को भंग करना चाहती थी..
अचानक से एक रौशनी हुई
अब मैं जीना चाहती थी
आँखों में एक उम्मीद थी
पर मेरा पैर फँस गया
मैं बहुत खुश थी
मेरी आँखें उस रौशनी को देख रही थी
वो मेरे करीब बढ़ रही थी
पर मेरा पैर....
मेरी आँखों में वो रौशनी
बड़ी हो रही थी
मैं ख़ुशी से पागल हो गयी
वो पीली चौंधियाने वाली बत्ती
अब मेरे करीब थी
मै जीना चाहती थी
मैं ख़ुशी ख़ुशी उस रौशनी को
एकटक देखा...
यकायक एक हाथ ने मेरे सुन्न से
हाथ को अपनी ओर खींचा
और वो तेज़ी में आती हुई ट्रेन
नेरे करीब से निकल गयी....
No comments:
Post a Comment